राजतरङ्गिणी – भारत की सांस्कृतिक धरोहर


राजतरङ्गिणी - भारत की सांस्कृतिक धरोहर

राजतरङ्गिणी – भारत की सांस्कृतिक धरोहर

डाॅ. सौ. हंसश्री सतीश मराठे

उपाध्यक्षा तथा परीक्षा विभाग प्रमुखा
संस्कृत भाषा प्रचारिणी सभा, नागपुर
भ्रमरध्वनि क्र.-9421277805
hshri1960@gmail.com


आसिंधुसिंधुपर्यन्तां हिमालयकिरीटिनीम्।
ब्रह्मराजर्षिरत्नाढ्यां वन्दे भारतमातरम्।।

भारत में मानवी अस्तित्व का इतिहास ऐतिहासिक तथ्यों के आधारपर अश्मयुग से माना जाता है। प्राचीन भारतीय संस्कृति यह विश्व की प्रधान संस्कृति है, वैशिष्ट्यपूर्ण संस्कृति है। किसी भी देश-प्रदेश को समझनेके लिये भूगोल , इतिहास तथा संस्कृति ये मापदण्ड होते है।
कविराज कल्हणकृत राजतरङ्गिणी यह संस्कृतभाषानिबद्ध पद्यात्मक इतिहासग्रन्थ है। प्राचीनकालसे कल्हणकवि के कालतक का लिखित इतिहास एकत्रित प्राप्त होना यह अपने आप मे एक बहुत बडी उपलब्धी है। कविराज कल्हणकृत राजतरङ्गिणी जैसे ऐतिहासिक ग्रन्थ का महŸव तीन प्रकार से है। पहला तो यह की भारत की भौगोलिकता में शिरोधार्य कश्मीर जैसे प्रान्त का विस्तृत इतिहास है। दूसरा कल्हण खुद कश्मीरी विद्वान थे। तिसरा यह संस्कृतभाषानिबद्ध है।
राजतरङ्गिणी में दृग्गोचर भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को खोजने का एक प्रयास यहा किया है।
भारतीय संस्कृति प्राचीन है, वैशिष्ट्यपूर्ण है और कालचक्र की गतिशीलता मे भी उसके टिकाऊपन का अनुभव हम लेते है। ऐसा सोचना गलत है की उस की जितनी भी विशेषताए हैं , सब की सब इस ग्रन्थ से प्राप्त होगी। भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों का जो दर्शन इस ग्रन्थ को पढने से होता है उसी को सामने रखते हुए कश्मीर और शेष भारत सांस्कृतिक मूल्यों से जुडे है यह वास्तविकता अभिव्यक्त होती है। राजतरङ्गिणी में भारतीय संस्कृति की जो झलक पायी जाती है उसका यथाशक्य परिशीलन इस लेख का उद्दिष्ट है।
संस्कृति की परिभाषा – संस्कृति का अर्थ है सभ्यतापूर्वक कृति। संस्कृति एक विवक्षित विचारधारा के अनुसार की जानेवाली कृति होती है। भारत में एक विशेष संस्कृति फली फुली। इतना ही नही बरसों से चलती आयी इस संस्कृति से भारत की एक पहचान बनी। इन्ही सांस्कृतिक मूल्यों की ओर विदेशी चिंतक खीचे चले आते है ऐसा महनीयों का दृढ मत है।
सांस्कृतिक मूल्यों की आवश्यकता-
मनुष्यजीवन सुखकर ही नही आनन्ददायी भी हो इस विचार से भारतीय संस्कृति का पोषण हुआ है। चाहे पुनर्जन्म को मानो या ना मानो, पूर्वसंचित को स्वीकार करो या ठुकराओं, सुख और दुख किसी ने किये हुए कर्मों पर ही निर्भर होते है। सुखदुख की स्थिति चिरंतन नही होती। जिस चीजद्वारा अभि सुख मिल रहा है उसी से कल भी मिलेगा यह निश्चित नही है। जो चीज युवा स्थिति मे सुखदायक है वह वृद्धापकाल मे सुखकारक होगी ऐसा नही कह सकते। आनन्दप्राप्ति की बात इससे भिन्न है। आनन्द का अनुभव चिरस्थायी होता है, शाश्वत होता है, पुनःप्रत्ययकारी भी होता है।

आनन्द एकमात्र शब्द ऐसा है जिसका पर्यायवाचक शब्द उपलब्ध नही है। सुख क्षणिक होता है, तात्कालिक होता है। त्याग से मिलनेवाला आनन्द अत्युच्च होता है जो भारतीय संस्कृति की नीव है। सांस्कृतिक मूल्यहीन मानवी जीवन अनर्थकारी होता है अथवा निरूपयोगी होता है। इसलिये जीवनसाफल्य के लिये सांस्कृतिक मूल्यों की निरंतर आवश्यकता है। संस्कृतिहीन मनुष्य पशुतुल्य होता है। आहार, निद्रा, भय, और मैथुन मे मनुजेतर प्राणियों के समान होते हुए भी केवल सांस्कृतिकता से ही मनुष्य अपनी विशेषता प्रकट करता है। इस तरह अन्य प्राणियों से अपनी अलग पहचान रखने के लिये सांस्कृतिकता अनिवार्य है।
भारतीय संस्कृति की विशेषताए।
वेदकालसे यहा पर फलीफुली भारतीय संस्कृतिकी विशेषताए इसप्रकार है –
1) – भारतीय संस्कृति व्यष्टि तथा समष्टी के साथ साथ परमेष्टी का भी विचार करनेवाली संस्कृति है।
2) -वसुधैव कुटुम्बकम् , मरणान्तानि वैराणि, सत्यमेव जयते , कृण्वन्तो विश्वमार्यम् , निष्काम-कर्मसिद्धान्त , परधर्मसहिष्णुता इ. इ. जैसे त्रिकालाबाधित तथ्यों को उजागर करती है।
3) – वर्णाश्रमव्यवस्था को प्रस्थापित करती है।
4) – चार पुरूषार्थों को माननेवाली है।
5) – पुनर्जन्म का सिद्धान्त यहा प्रचलित है।

6) – विधिविधान अर्थात भाग्य-
7) -परधर्मसहिष्णुता भारतीय संस्कृति का महŸवपूर्ण बिन्दु है।
8) -आतिथ्यशीलता भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख अंग है।
9) -विभिन्न कला भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है।
10) – ‘ विविधता मे एकता ’ यह भारतीय संस्कृति की विशेषताओं का मुकुटमणि है।
प्रायः ये सभी मूल्य राजतरङ्गिणी में दिखाई देते है। शब्दमर्यादा को ध्यान मे रखते हुए इनमे से मोटे तौर पर पाये जानेवाले उदाहरणों को यहा प्रस्तुत किया है।

निर्णयो वर्णगुरूणा त्वयैवैष प्रदीयताम्। ब्राह्मणस्य प्शेर्वास्यात्प्राणानां कियदन्तरम्।।
वर्णाश्रमप्रत्यवेक्षाबद्धकक्ष्यः क्षितीश्वरः। चक्रभान्वभिधं चक्रमेलके द्विजतापसम्।।

धर्मासनस्थो राजाऽथ धर्मोऽयं तथाऽधर्मं व्यपोहति।। इन में वर्णव्यवस्था का वर्णन मिलता है।


पुरा ग्रामगृहस्थस्य कस्यचित्पृथुसंपदः। जन्मान्तरे कर्मकरो हालिकोऽभूद् भवान् किल।।
नीत्युज्ज्वलं व्यवहरन्प्रजाराधनतत्परः।प्राक्पुण्यसंक्षयातुडुन्ग: शनैस्त्वासीत्स्खलन्मतिः।।
जन्मान्तरीयैः साम्राज्यं मया प्रापीति चिन्तयन्। पात्रे प्रसन्नचित्तस्य काले दानेन तेन ते।
अखण्डितानामाज्ञानां शतमासीत्त्रिविष्टपे।। अस्थिनी क्षेमगुप्तस्य गृहीत्वा जाह्नवीं गते।
काश्मीरिकाणां यः श्राद्धशुल्कोच्छता गयान्तरे।
इस तरह पाप/पुण्य और श्राद्धतर्पण के उल्लेख पाये जाते है।


कचं भस्मीकृतं दैत्यैनागान् ताक्ष्र्येण भक्षितान् पुनर्जीवयितुं को वा दैवादन्यः प्रगल्भते।।
उदयो ददृशे शश्वद् गतिं को वेत्ति वेधसः। अनित्यपतनोच्छ्राया विचित्रा भाग्यवृत्तयः।

भाग्य विषयक विवेचन इन श्लोकों मे दिखाई देते है।


कलाविष्कार- चित्रकला , वास्तुकला, स्थापत्यकला, मूर्तिकला, नृत्य-नाट्य-संगीतकलादि विभिन्न कलाओं का आविष्कार यथास्थान दिखाई देता है। कश्मीर के इतिहास में प्रायः सभी राज्यकर्ताओं ने विपुल मात्रा में मन्दिरों का निर्माणकार्य किया है। इन मन्दिरों मे विभिन्न कलाओं का आविष्कार दिखाई देता है। कश्मीर की धनदतुल्यता यहा अभिव्यक्त होती है। इन सभी उदाहरणों को स्थालीपुलाकन्याय से देखना चाहिये। सभी उपलब्ध उदाहरण देना संभव नही है। लेकिन इन्ही के द्वारा जिज्ञासु पाठकगण मूलग्रन्थ की ओर आकृष्ट होंगे ऐसा विश्वास है।
संस्कृति का पुनरूज्जीवन , सांस्कृतिक मूल्यों की दैनन्दिनी मे पुनः स्थापना करना प्राप्त परिस्थिती में अपरिहार्य है।
संस्कृतिरक्षा के उपाय –
1- पाश्चात्यों के अंधानुकरण से भारतीय संस्कृति लुप्त होने की संभावना बढ रही है। ऐसी स्थिति मे केवल सोचना, उस दिशा मे सोचकर विचारप्रकटन के लिये लेखन करना तथा अन्तःकरण से उस विषयपर भाषण देना पर्याप्त नही है। आज के परिप्रेक्ष्य में आवश्यकता है मूल्यानुकूल कृति की।
2- परंपरा को बनाये रखना , यह भी एक संस्कृति बचाने का उपाय हो सकता है। कभी कभी हर स्थान पर तथ्यरहित सवाल उठाना बुद्धिनिष्ठा का द्योतक नही होता। श्रद्धावान लभते ज्ञानम् यह श्रुतिवचन है। अश्रद्ध होने से अन्धश्रद्ध होना बेहतर है ऐसा भी किसी विद्वानों का मत है। परंपरा से आदते बनती है। अच्छी आदतों से अच्छा व्यवहार होता हैं जिससे संस्कृति टिकती है।
3- संस्कृतभाषा में निबद्ध हर कृमी मे भारतीय सांस्कृतिक मूल्य अवश्य पाये जाते है। कल्हणकृत राजतरङ्गिणी यह ऐतिहासिक काव्य अपवाद नही है बल्की उसका भी योगदान रहा है। इसकी झलक हम ने देखी है। सांस्कृतिक एकता के धागे से कश्मीर की अभिन्नताही उजागर होती है। कश्मीर मे एक संस्कृत-तरङिगणी भी है। कश्मीर में फिरसे पूर्वकाल कां स्मरण देनेवाली ऐसी संस्कृत की परंपरा तथा भारतीय संस्कृति फले , फुले इस प्रार्थना के साथ लेखनी को विराम देती हू।
जयतु जयतु भारतम्।

डाॅ. सौ. हंसश्री सतीश मराठे

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